नेहरू जी की छड़ी या सेंगोल?

खबर थी कि प्रधान मंत्री मोदी नए संसद भवन में ‘सेंगोल’ की स्थापना करेंगे। 

विरोध करना विपक्ष का कर्तव्य एवं अधिकार ही नहीं धर्म भी है। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए विपक्ष ने विरोध करते हुए इसका औचित्य पूछा। सत्ता पक्ष का जवाब था कि 1947 में भारत के अंतिम वाइसरॉय लॉर्ड माउंटबैटन द्वारा  नेहरू जी को सत्ता हस्तान्तरण के प्रतीक के रूप में दिया गया था।  

विशेषज्ञों ने बताया कि माउंटबैटन ने पूछा था कि सत्ता हस्तान्तरण के प्रकरण में स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधान मंत्री को क्या औपचारिक भेंट दी जानी चाहिए। भारतीय संस्कृति से अनभिज्ञ नेहरू जी ने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से सलाह ली और तय हुआ कि प्राचीन भारत में राज्याभिषेक के समय राजा को कर्तव्यपरायणता के प्रतीक के रूप में दिया जाने वाला सेंगोल उपयुक्त होगा। सेंगोल बनाने का काम एक तमिल स्वर्णकार को दिया गया। उसने पन्द्रह हजार रुपये की लागत से एक महीने में इस ऐतिहासिक अवसर के लिए सेंगोल बनाया। लॉर्ड माउंटबैटन ने यह सेंगोल 14 अगस्त 1947 को सत्ता हस्तान्तरण करते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू को प्रदान किया। नेहरू जी ने इसे अपने पैतृक निवास आनन्द भवन में रखा जो बाद में नेहरू जी की छड़ी (walking stick) के रूप में प्रदर्शित किया गया और सेंगोल जन स्मृति से विलुप्त हो गया। वो तो प्रधान मंत्री मोदी के सतत प्रयास के फलस्वरूप सेंगोल का पता चला अन्यथा यह राष्ट्रीय धरोहर नेहरू जी की छड़ी के रूप में पड़ी रहती।

सत्ता पक्ष का आरोप था कि नेहरू जी ने सेंगोल जैसी ऐतिहासिक महत्वपूर्ण धरोहर को अपनी छड़ी बता कर अपमानित किया।  

काँग्रेस को अपने स्वर्गीय शीर्ष नेता का अपमान सहन नहीं हुआ। जवाबी हमला करते हुए काँग्रेस ने कहा कि उपरोक्त कथन में कोई तथ्य नहीं है। सेंगोल का सत्ता हस्तान्तरण से कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि लॉर्ड माउंटबैटन ने नहीं बल्कि 14 अगस्त 1947 को यह छड़ी Sri Amblavana Desigar नामक तंजौर स्थित एक हिन्दू मठ के दो महंतों ने नेहरू जी को भेंट की थी।   

हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उन्माद में पगला गया (वैसे पगलाया कब नहीं था)। अनेक चैनलों से विद्युत गति से सुनाई जाने वाली आठ मिनट में अस्सी खबरें (बूझो तो जानें) जैसे अनेक कार्यक्रम पृष्ठ में चले गए और शुरू हो गई सेंगोल पर बहस। मीडिया के दोनों खेमे – ‘गोदी मीडिया’ और ‘खान मार्केट गैंग’ – सेंगोल के मुद्दे पर एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। दोनों खेमों ने अपने-अपने इष्टदेव का स्तुति गान करते हुए दुश्मन के इष्टदेव की नाक मिट्टी में रगड़ने की प्रक्रिया शुरू कर दी। ‘खान मार्केट गैंग’ ने कहा कि सेंगोल एक मठ द्वारा नेहरू जी को दिया गया उपहार था और अहंकारी नौटंकीबाज मोदी भोली-भाली भारतीय जनता को मूर्ख बना कर, जैसा वो करते आए हैं, काँग्रेस को बदनाम करने के लिए उसे सेंगोल बता रहे हैं। दूसरी तरफ ‘गोदी मीडिया’ पूरी बेशर्मी के साथ प्रतिद्वंदी इष्टदेव और देवताओं को बेहिचक राष्ट्र-विरोधी और हिन्दुत्व विरोधी आदि बता रही थी। दोनों खेमों के विशेषज्ञ फालतू के मुद्दों को लेकर – जैसे अगस्त 1947 में सेंगोल/छड़ी) को मद्रास से दिल्ली तक वायुयान से लाया गया था या रेलगाड़ी से – एक दूसरे का गला पकड़ने पर आमादा हो गए। प्रतिद्वंदी इष्टदेव की छवि मलिन किए बिना भला अपने इष्टदेव को आकाश पर कैसे बिठाया जा सकता है। इसलिए दोनों खेमे एक दूसरे के इष्टदेव के ऊपर कीचड़ उछालने में जरा भी कंजूसी नहीं कर रहे थे। इस शुभ कार्य में दोनों ओर के कुछ देवताओं का पूरा सहयोग था।  

हर भारतीय ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ इफ़रात से घुट्टी के साथ पिया है। यह हमारी नस-नस में समाया हुआ है। कुछ देवता, इस विचार से कि कुटुम्ब के अन्य सदस्य भारत में हो रहे इस द्वंद के आनन्द से वंचित रह जाएंगे, व्याकुल हो गए और आनन-फानन में विश्व भ्रमण पर निकल पड़े ताकि सब को अवगत करा सकें कि प्रतिद्वंदी इष्ट कितना नीच हैं, कैसे संसद में सेंगोल के सम्मुख साष्टांग प्रणाम का ढोंग करता हैं, और किस प्रकार अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करवा रहा हैं। विदेशी मंच से उनके उद्गारों से प्रतिद्वंदी की छवि खराब होने से पहले भारत की खराब होती है। हो तो हो, उन्हें क्या। उन्हें इसकी चिंता नहीं होती उनकी अपनी छवि भी खराब होती है।

वैसे, क्या आपको विश्वास है कि कोई भी यह नहीं जानता था सेंगोल नेहरू जी के प्रयागराज स्थित पुश्तैनी निवास ‘आनन्द भवन’ में ‘नेहरू जी की सोने की छड़ी’ के रूप में (walking stick) प्रदर्शित था? क्या वास्तव में आम जनता के लिए प्रदर्शित इस सोने की छड़ी’ (walking stick) को ‘खोजने’ की जरूरत थी?

बहरहाल, यह ‘छड़ी’ प्रयागराज से दिल्ली लाई गई जिसे 28 मई को संसद में उसी मठ के महंतों ने पुन: प्रधान मंत्री को अर्पित किया जिसे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने विधिवत अध्यक्ष के आसन के पास स्थापित कर दिया।

संसद भवन में सेंगोल की स्थापना अपने आप में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है और हर भारतीय को – बिना इस पचड़े में पड़े कि यह नेहरू जी की छड़ी थी या सेंगोल – गर्व करना चाहिए कि मोदी जी ने सेंगोल की स्थापना करके एक नई प्रथा की शुरुआत की।

क्या हम आशा करें कि यह सेंगोल हर नए प्रधान मंत्री को पूर्ण सम्मान के साथ दिया जाया करेगा?

14 अगस्त 1947 के घटनाक्रम का ब्योरा ‘टाइम मैगज़ीन’ के 25 अगस्त 1947 अंक When ‘agnostic’ Nehru fell into ‘religious spirit शीर्षक से छपे ब्योरे के अनुसार –

‘The ceremony of transfer of power was led by two emissaries of Sri Amblavana Desigar — a sannyasi order of Hindus ascetics — from Tanjore (now Thanjavur). The emissaries were accompanied by southern India’s “most famous” player of the nadaswaram (a kind of flute).

‘Sri Amblavana thought that Nehru, as first Indian head of a really Indian government ought, like ancient Hindu kings, to receive the symbol of power and authority from Hindu holy men.

‘On the evening of 14 August, the sannyasis — who were streaked with sacred ash — solemnly progressed to Nehru’s house. One of the escorts bore a large silver platter and on it was the pithambaram. When at last they reached Nehru’s house, the flutist played while the sannyasis awaited an invitation from Nehru.

‘Then they entered the house in dignity, fanned by two boys with special fans of deer hair. One sannyasi carried a sceptre of gold, five feet long, two inches thick. He sprinkled Nehru with holy water from Tanjore and drew a streak in sacred ash across Nehru’s forehead. Then he wrapped Nehru in the pithambaram and handed him the golden sceptre. He also gave Nehru some cooked rice which had been offered that very morning to the dancing god Nataraja in south India, then flown by plane to Delhi.’

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